इंसानी सोच और कृत्यों पर प्रकृति की छोटी सी चोट : कोरोना त्राहिमाम और इंसानी चरित्र
आलेख : अमित तिवारी 'शुन्य '
किसी
शायर ने क्या
खूब कहा है
की
'बदलते हैं
दौर ,लेकिन बदलती
नहीं हैं फितरतें
आदमी की '
आज
के परिदृश्य में
शायद यह पंक्तियाँ
अपना मतलब खुद
बता रहीं हैं।
आज दुनिया जिस
वैश्विक संकट
से जूझ रही है वो
कोई अभिशाप तो
जरूर हो सकता
है ,लेकिन अगर
हम सार्वभौम बात
करें तो समझ आता है की इसके
मूल मे एक ऐसा विषाणु
हैं जो शायद नग्न आँखों से
देखा भी नहीं
जा सकता है
जिसकी आकृति किसी
कागज़ पे लिखे
डॉट यानि बिंदु
के भी लाखवें
भाग जितनी भी
होती होगी। लेकिन
आज इस अति
सुक्ष्म जीव
ने संपूर्ण आधुनिक
मानव समाज को
हिला कर रख
दिया है ,उस
समाज को जो
चाँद पर जीवन
ढूंढता है , उसे
जिसने दुनिया को
कई तबको मसलन-
पहली , दूसरी , तीसरी
चौथी दुनिया के
लोगो में , उनके
सामाजिक और
आर्थिक तरक्की की
आधार पर बांटा
था , लेकिन क्या पहला क्या
-----चौथी दुनिया।
आज
हम सब पर
एक वैश्विक संकट
आ गया है।
इससे बचने के
लिए दुनिया भर
की सरकारें , लोकशाई
, आम जन सब
लगे हुए हैं।
एक अति आसाधारण
समय से सारा
मानव जगत जूझ रहा है। इस समय सबकी एक ही
कामना , अभिलाषा और
ध्येय है की
इस विकराल समय
में मानव समाज
सफल होकर निकले
और न चाहते
हुए भी ईश्वर
से कहना पड़
रहा है कि
प्रभु इस विकराल
महामारी से
कम से कम
जन धन की
हानि हो तो
बहुत अच्छा होगा।
लेकिन
दूसरा सवाल यह
की इस विषम
स्तिथि से हम
सबने क्या कुछ सीखा ? या की
क्या कुछ था
जो की इंसानो से जाने
अनजाने ग़लत हुआ
,आएं एक आत्मावलोकन
तो करें :
सीखें या
गलतियों की
रूप रेखा :
१.
मुनष्य ने प्रकति
को केवल दोहित
किया ,उसका सृजन
वो भूल गया
, अपने विकसित होने की हवस
के हुनर में
उसने प्राकृतिक संसाधनों
को औंधे मुंह
गिरा दिया। न
जाने कितने प्राकृतिक
मानदंडों को
उसने धता बता
दिया। अमरत्व की
खोज हो या
की क्लोनिंग या
विज्ञान के
संयोजन से विश्व
को यह बताने
की भूल कि
अहम्
ब्रम्हास्मि। .
बताने
की भूल , मनुष्य
कि सबसे बड़ी
भूल है , कंक्रीट के
जंगलों के निर्माण
, बेहद खतरनाक जेहरीले
रसायनो व हथियारों
की बात तो
बहुत पीछे रह
गए , मनुष्य की
क्रूर लालची सोच
ने स्वयं अलग
अलग मानवीय नस्लों
को मिटा देने
के लिए जैविक
और परमाण्विक शक्तियों
का निर्माण व् उसका एक
दूसरे पर नग्न
प्रयोग किया , अब भी समय
है हम सार्वभौम
स्वास्थ्य के हित में संभल जाएँ।
२.
प्रक्रति से जो हमने लिया है उसके
मूलभूत तत्वों का
लौटा देने का
प्रयास मसलन पेड
पौधे, मिटटी , पानी
,आदि के संरक्षण से हम काफी
हद तक, इन्हें बचा सकते
हैं।
३.
पेड़ लगाना और
उनको संरक्षित करना
हमारी प्रकृति के
प्रति जिम्मेदारी है।
जल का उचित
सदुपयोग कर , उसके
उपयोग के प्रति
जान जाग्रति व
मिटटी के संरेखण
के लिए कृषकों
, संस्थानों व
आम लोगो के
बीच मे एक साझेदारी की
कभी न रुकने
वाली श्रृंखला शुरू
हो।
४
. जीवों के प्रति
हम अपनी जिम्मेदारी
समझें , उनके लिए
भी प्रकृति (पृथ्वी ) एक मात्र
घर है ,जिस पर मानव
समाज ने जो
अवैध कब्ज़ा किया
है उसे शैनेः
-2 कम करना ही होगा
, परिथितिक तंत्र
में जीव जगत
मानव समाज के
साथ रहता आया
है उनके बिना
हमारी कल्पना नहीं
है। यह बात
तो वैदिक साहित्य
से लेकर रामायण
व महाभारत में भी हमें देखने
को मिलती है।
५
. इस गैर इरादतन कब्जे की आदत
को हमको अब
बदलना ही होगा, साथ ही
छोड़नी ही होगी
अपनी मांस खाने के तौर पर
की जाने वाली जीवों की वो हत्या जिसकी
आदत ने हमे
अर्ध नरपिचाश बना
दिया है,इस आदत ने जीव जगत में
दुर्दांत असंयता
की स्थिति को
जन्म दिया है।
याद रखिये महावीर
और बुद्ध जैसे अवतारों ने
भी इसे जघन्य
कहा है , भूले
नहीं मुगालते में
न रहें कोरोना
क्राइसिस एक
विषाणु जनित समस्या
है।
६
.अर्थतन्त्रको व्यवस्था में लाने वाले
उस सर्वहारा वर्ग
को भी हमे
स्वयं के पारिथितिक
तंत्र से जोड़ना
पड़ेगा अन्यथा अशिक्षा
, अज्ञान , बदहाली , अपराध
और न जाने
किन किन वेदनाओं से ग्रस्त मानव समाज का यह
वर्ग (वर्ग भेद
के लिए नहीं
) खुद को
और संपूर्ण मानव
समाज को दुःख
देगा और जिसके
जिम्मेदार हम
सब होंगे।
७
. श्रम साध्य जीवन
शैली को अपनाना
, स्वाबलंबन करना
, कठिन कर्म से
असाधारण परिणाम
हांसिल करना , प्रकृति
की तरफ लौटना,
परिवार की तरफ
लौटना , आराम तलवी
को त्याग कर
अपने काम को
औरों या की
मशीनों से करने
की मानसिकता के
फ़ैशन को छोडदेना,
ही आज हमारे
मानव समाज के
लिए समय की
आवश्यकता है।
८.
सृजन श्रम के
पसीने में चमकता है , स्वाध्याय
, समन्वित विकास
और उसमे सबकी
सहभागिता को
लाना , धरम के
नाम पर लड़ाई
नहीं बल्कि धरम
को विकास की
लिए सकारात्मक रूप
में लेना।
९
.शिकायती रवैये
से अधिक अच्छा
होगा की हम
हल को ले
कर चले।
१०.
ईश्वर व प्रकृति में
आस्था व उसके
द्वारा बनाये गए
..."लौ ऑफ़
नेचर" को मानना
११.
एकता एक सार्वभोम
आवश्यकता भी
है और इसके
बिना कोई भी समाज तरक्की कर
ही नहीं सकेगा।
१२.
वर्त्तमान कोरोना
क्राइसिस में
'गिलहरी के समुद्र
को साफ़ करने के जैसी बहुत
छोटी' लेकिन सकारात्मक
मानसिकता बेहद
जरुरी है।
अतंतः हम 800 करोड़
लोग मिल कर
अगर आज की
परिथितियों से
कुछ सचमुच सीखें
तो यक़ीनन संपूर्ण मानव
समाज इस तरह
के कई संकटो
से सहज लड़
सकता है , और
बहुत मुमकिन है
की हमारी ये
सीख हमे बहुत
कुछ नया और
अच्छा करने के
लिए भविष्य के
लिए पहले से
तैयार कर दे।
उम्मीद है हम जीतेंगे , ईश्वर व प्रकृति हमने विजयी बनाएंगे।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें