कितना पाया है खुद को खोकर : वक़्त के मानिंद
स्वयं के आंकलन का दस्तावेज़ (अंतर्मन की कलम से)
अमित तिवारी ‘शुन्य’;
लेखक;
पर्यटन
शिक्षक (सहायक प्राध्यापक भा.प.या.प्र.स.)
, विचारक व प्रेरक वक्ता
यू तो जिन्दगी वक़्त ही ही कहा देती है अपनी भाग
दौड़ से,कि कोई फुर्सत ग्रस्त आदमी अपने लिए दो घूँट का समय भर निकल सके कि कहीं
स्वयं की भी ताकीद कर सके I वैसे यह छलावा तो नहीं लेकिन हकीकत जरुरत है कि
जिन्दगी दौड़ती बहुत है कभी फुर्सत के लिए और कभी फुर्सत से I भाई हर खासो-आम के
बारे मैं मुझे क्या पड़ी है, मैंने तो खुद का हिसाब लगाने की जुगत बस लगायी हैI सच
है समय लगाम अपने पास ही रखता है..पर क्या कभी ऐसा हो सकता है की समय की लगाम
हमारे हाथो में आ जाये I बुजुर्ग इसे ही शायद वक़्त हमारा होना कहते हैं ...यह उम्र
या तजुर्बे से नहीं बस वक़्त से होता है की हमे अपने लिए वक़्त मिले , फिर अगर दुसरे
नज़रिए से सोचा जाए तो कभी इस बात का इल्म हो उठता है कि दोस्त वक़्त तो है शायद
वक़्त को सही लहजे में संभाला ना गया ..कुछ मुफ़ीद न हुआ तो कुछ आदतें खा गईं I अगर
मगर तो चलता ही रहता है लेकिन इंसानी याददाश्त कोई सरकारी व्यवस्था से चलने वाला
तंत्र नहीं यह तो वो कोना है जहां सत्ता बस अपनी ही होती है I याददाश्त के अंतिम
कोने से जब यहाँ तलक देखा कि आजतलक तक की दौड़ मे कुछ सुकून है तो कुछ शिकन भी है
कुछ प्रयास हैं तो कुछ प्रतिफल भी ,यह सब जब अंतर्मन में किसी चलचित्र की तरह चलता
है तो विधाता से मिले जीवन पर एक मुस्कान भरा पल तो मिल ही जाता है ..अरे दोस्त
पानी भी समतल पर बहता है तो टेढ़ा मेढ़ा हो ही जाता है मसलन जिन्दगी की दौड़
में..अमां यु तो दौड़ना अभी पूरा कहाँ हुआ है ? यह तो एक लम्हा भर है जिसने ताक़ीद
की कि खुद से खुदी का हिसाब ले लो ज़रा...याद आता है की जीवन एक सही दिशा में चल
पड़ा हो जैसे –सुकून है दो वक़्त की रोटी है बाइज्ज़त अपने कर्मो से लेकिन धन्यवाद है
उस परवरिश का जिसने क्या ख़ूब सिखाया..तरबियत दी ...हाँ कभी लगा की कुछ और मिलता तो
बेहतर होता फिर एक इमानदार ख़याल आया यूँ कि इस कमी की कसक में भी एक पूर्णता है I
अक्सर हमने जो भी पाया है या कि जो भी मय्यसर है उसकी हमे कीमत भी कहाँ होती है और
जो नहीं मिला या की रह गया उसकी ख़ाहिश या शिकवा पहले कर लेते हैं लेकिन एक
निष्पक्ष मन से ताक़ीद की तो पाया की परवरिश बहुत बड़ी नैमत थी ,यहाँ तरबियत उस कारण
का नाम है जिससे हम बिना हारे लड़ते रहे हालतों से और हुनर सीख गयी लड़ने का जिसने
हमे जिन्दगी के किसी मोड़ पर टूटने नहीं दिया चाहे वो दो वक़्त की रोटी कपडा और मकान
की जरुरत भर नहीं था बल्कि इज्ज़त की वो डगर थी जो शायद इन्सान नामक प्राणी की सबसे
बड़ी धरोहर होती है I किसी भी वक़्त इंसान को अपने पूर्ण न होने (कमी होने) की ख़लिश
रहती भी है ...लेकिन फिर भी संघर्ष लाज़मी है वरन बानगी है की हम जिन्दा हैं और खुद
को पाने की जुगत में हैं लेकिन बिना कुछ खोये कुछ पाया जा भी नहीं सकता I लेकिन सुकून
है मेरे मन की खुद को इस तरह खपाया की खुदी से सवाल करते की कहाँ आ गए हम अब ? खेर
! इस सवाल के जबाब में भी हमे एक सवाल ही मिलता है कि “ दोस्त देख तो लो /सोच तो
लो चले कहाँ से थे और अब तलक आये कहाँ हैं ” ! शायद यह प्रश्न उन सभी जबाबों की
बानगी होगा जो इन्सान कभी अपने अंतर्मन में कहीं करता हो कभी कि कितना पाया ख़ुद को
खोकर I यहाँ लाज़मी बात यह भी है की पाना क्या है और खोना किसे कहते हैं ? इसको भी
सिलसिलेवार समझा जाना चाहिए ; पाना किसी प्रक्रिया का नाम नहीं बस दौड़ है संघर्ष
की जिसने जितना किया उसे उतना मिला भी है और रही बात खोने की तो यह जरुर एक
प्रक्रिया है एक सिलसिला है उस पाने की जिसके पाने के लिए जो भी कुछ पीछे छूट जाता
है , कुछ जो साथ नहीं रहता पाने की दौड़ के साथ या की यूँ कह लें की पाना साथ लाता
है उन तमन्नाओ, खाहिशों का गंवाना बनकर , जिसे हम खासोआम खोना कहते हैं जैसे स्कूल में अव्वल आने के ख़्वाब को पुरा करते
करते कभी मैदानों का वो खेल कहीं खो गया या कि अपना कोई शौक़ हाशिये पर चला गया हो
जैसे या कि जिंदगी में सफलता की ख्वाहिश ने कई अनमोल पल हमसे छीने हो जैसे वो
सुबहों की ताज़गी या की शाम के ढलते सूरज की मौज ; या फिर अपनों का साथ और बहुत कुछ
ऐसा जिसकी कोई क़ीमत नहीं होती अगर वो सब ना खोता या छूटता तो शायद आज जिसे लोग
सफलता कहतें हैं नहीं मिलती और दुनिया में यक़ीनन सफ़लता से ज्यादा कीमती कुछ भी
नहीं I तो इस सफ़लता की कीमत जो हमने चुकाई है वो शायद बेशकीमती है और इसको यकीन से
तो नहीं बस याद्दाश्त की feeded रील से आंकलित कर जरुर सकता हूँ बस मेरे लिए या
किसी मेरे करीबी के लिए इस तरह से :-
बचपन के दिन: मालूम हो की इंसा (हरेक) की ख्वाहिस
होती है कि कोई उसका बचपन उसे फिर से लौटा दे I लेकिन कई बार जिन्दगी को पटरी पर
लाने भर या कि यु कहूँ की सफ़लता की नीव के लिए कई बार बचपन के दिन कहीं खो जाते
हैं या की यु कहें की शायद आते भी नहीं हैं और कठोर सच्च्चाई तो ये भी है की खो भी
जाते हैं हाँ खो जाते हैं ..खेर !
समझदारी के दिन: महत्वाकांक्षा की उत्कंठा व्यक्ति के
समझदारी के दिनों को समझौते के दिनों में बदल देती है I और समझौतावादी रवैया
समझदारी का ही पर्याय बन बस जिन्दगी में महत्वाकांक्षा को बढ़ाता, बनाता और पालता है
I मसलन मुझे कुछ मिल जाये अगर मैं समझदारी ओढ़ लूँगा, ग़ैरमुमकिन ही क्यों ना हो
..खोकर इस नासमझी को ही, इसे पाया जाता है I रोज़ी के लिए बोस (हिटलर) की फटकार सुन
कर सहज रहना समझदारी है आज़ाद्बयाँ जिंदगी उस फटकार को बर्दाश्त नहीं करती इसलिए
क़ाबिल-ए-गौर यह है कि मुझ जैसे कईयों ने
नासमझी (आज़ाद्बयाँनियो) को ही फटकार दिया ज़िंदगी
से I उसे खोकर ही समझदारी आई है:-
रोटी पै टिका है पेट और रोटी टिकी है नौकरी पै
मेरी
अच्छी हो, ना हो पर जरुरत तो है ये नौकरी मेरी
पढ़ाई लिखाई बस की केवल पढाई लिखाई : बस इसी को कोई सब
कुछ खोकर पाता है डिग्री , डिग्रियां .... तरबियत या की इल्म जो की जरुरत सच है
पाया है इसे बहुत कुछ खोकर बस अंतर्मन ही जानता है I
संघर्ष नौकरी के लिए : इल्म हांसिल कर इंसा ओरों से जुदा हो जाता
है कहते रहे बुजुर्ग लेकिन इस दौड़ में आकर लगा की अक्ल कम थी अमां जो की इल्म में
लगे रहे असल इल्म तो बस वो नहीं था जिसके लिए हमने सुकून भरे पलों को खोया और आज
की इस स्थिति तक स्वयं को पा सकें I लेकिन ग़मज़दा नहीं है ख़ुश हैं कि संघर्षों की
जरुरत का पता लगा हमें, खेर पायी एक अदद नौकरी जिसे सबसे बड़ी नैमत कहा जाता है I हक़ीकत
में खोया तो ख़ुद को भी है इसे पाने के लिए पाने के लिए और पाकर भी लगा की कुछ खोया
है शायद I
संघर्ष नौकरी में मियां अब इसे भी बताने की जरुरत है क्या
....छोड़ो यु ही नहीं दे देता कोई वेतन या कि तनख्वाह या कहूँ सैलरी I दिन भर तो
निकल जाता है नौकरी में रात सोकर सोचने में कि नौकरी में क्या चल रहा है
मियां बहुत कठिन है दौड़ दफ्तर कि और हमने
इसके लिए भी खोया तो बहुत कुछ है ही ना य़ार salt एंड पेपर हो गए I
और ना जाने कितने संघर्ष नौकरी बचाने के लिए भी
बेपरवाह जीने वाला एक विचारक भी यदि अपने विचारों तक को बेडियों में बांध देता है
तो समझो हुजुर इससे ज्यादा क्या कीमत देगा कोई इस दो वक़्त की रोटी की लेकिन अगर
व्यावहारिक होकर सोचा जाय तो समझ आएगा की जो खोया है अगर उसे पाया होता तो जो पाया
है वो कभी नहीं पाते जो कुछ हमने पा लिया, मसलन सुकून के लिए संघर्ष जरुरी है तो
कभी ख़ुश रहने के लिए चुप्पी भी जरुरी है I दरअसल पाकर खोना और खोकर चीज़ों को पाना एक
स्वाभाविक प्रक्रिया है और शायद यही इन्सान का सबसे बड़ा इम्तिहान है कि उसने क्या
खोया और इससे क्या पाया I जो खो दिया उसे संसार नहीं पूछता बस पूछता है तो कि उसके
पास क्या है अभी इसलिए मियां अंतर्मन का आंकलन अपनी स्तिथि जानने के लिए तो ठीक है
लेकिन जो मिला है वो भी बहुत कुछ खोकर /आहुति देकर कमाया है I सुकून है कुछ पाया
तो सही कुछ खोकर ही सही I
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