“हाथ बढ़ा कि फिर दिन निकला”
चित्र लेखन पर स्वरचित
अतुकांत कविता
द्वारा अमित तिवारी “शून्य”
ग्वालियर , मप्र.
ये दोस्त मेरे,
हो साथ तेरे,
मेरे जीवन की पतवार,
बन सकूँ बड़ा,
हो सकूँ खड़ा,
थाम लेना मेरा हाथ,
की देना साथ मेरा,
कि सूरज फिर निकला है,
पर लक्ष्य अभी तो पाना है,
हमने भी जीवन में कुछ ठाना है,
पर लक्ष्य हमेशा संगठन गढ़े,
होते हैं ; पाए जाते हैं ; जो की हों अड़े,
निर्लिप्त बहुत जीवन मेरा,
उसमे एकांत का भाव पूरा,
लेकिन दिन की बेला में बढ़ता,
घटता , गिरता चलता फिर रुकता,
मैं भी यूँ ही बढ़ता जाता हूँ,
फिर कदम से कदम तुझ से मिलाता हूँ,
लक्ष्य पर टिका राम धुन गाता हूँ,
सूरज शिखर का ओज बता,
बढ़ रहा विवर की खोज जता,
लेकिन जीवन चलने का नाम,
और न कोई मुझको काम,
मैं चलूँ दिवा,
मैं चलूँ निशा,
मैं चलता हूँ पथ पर अडिग-अविराम;
बस तुम हाथ बढ़ा दो,कि दिन निकला;
ताकि दिन में ही लक्ष्य मिले;
संघर्ष की बेला अब कुछ सिमटे;
मेरे जीवन की कीर्ति पके;
मुझे नया कुछ सृजन मिले;
यह दोस्त मेरे,
हो साथ तेरे,
मेरी जीवन की पतवार,
बन सकूँ बड़ा,
हो सकूँ खड़ा,
थाम लेना मेरा हाथ,
द्वारा
अमित तिवारी “शून्य”
ग्वालियर
, मप्र.
01.11.2020