गुरुवार, 15 अक्टूबर 2020

‘शक्ति की आराधना’ -पर्याय पद्धति व प्रासंगिकता आलेख द्वारा अमित तिवारी सहायक प्राध्यापक , भा.प.या.प.स. ग्वालियर म.प्र.

 

शक्ति की आराधना’ -पर्याय पद्धति व प्रासंगिकता

आलेख द्वारा अमित तिवारी

सहायक प्राध्यापक , भा.प.या.प.स. ग्वालियर म.प्र.

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भारतीय जीवन दर्शन में प्रकृति और प्रभु दोनों की अंगीकार्यता एक अकाट्य भारतीयता का द्योतक रहा है। भारतीय दर्शन में शिव के साथ शिवा’ , विष्णु के साथ रमा’ , राम के साथ सियाऔर कृष्ण के साथ राधाकी महत्ता महती संसर्ग में उद्घटित होती है यद्यपि यह देश ‘‘ यज्ञ नार्यस्तु पूज्यन्ते ; रमन्ते तत्र देवता’’ भारतीयता के भाव को उद्घाटित करता है। अतीत के पावन संसर्ग में भी राम की शक्ति आराधनाजैसा प्रसंग हमारी विचारधारा को समायोजित करके शक्ति (नारी) के महत्व को उद्घटित करती है।शारदीय व चैत्र नवरात्र दुर्गा स्वरूपिणी आद्यशक्ति उर्वराशक्ति धारण्य हो अन- धन से समस्त जन- जन का पोषण कर पृथ्वी पर मनुष्य का मातृ स्वरूप पालन करती आई है।

 

        भारतीयता के समग्र दर्शन में यह नितान्त आवश्यक है कि शक्ति पूजा या की आराधना ईश्वरीय समग्र में मनुष्य के समस्त संसर्गों की स्थापना करती हुई आई है। दुर्गा के नव रूपों की परिकल्पना मातृ स्वरूपा होकर भी बाल्य रूपा होती है। जिससे उनका संसर्ग नवरूपों शेलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघण्टा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि , महागौरी, सिद्धीदात्री के रूपों में उदृत होती है। शास्त्रोक्त वक्तव्य है-

‘‘ प्रथमं शेलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी ।

तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।।

पंचमम् स्कन्दमातेति षष्ठं काव्यायनीति च।

सप्तमं कालयत्रीति महागोरीति चाष्टमम्।।

नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्विताः।

उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणेव महात्मनाः।।’’

 

उक्त शास्त्रेाक्त वर्णन द्वारा उद्धत भारतीयता में शक्ति के सम्यक नवमांशों का यथोचित वर्णनात्मक क्रमानुसार वर्णन है जिसमें मातृशक्ति के विभिन्न स्वरूपों का उद्घाटन सृष्टि की मातृ/नेसर्गिक शक्ति के तौर पर होता है जो जीवन के बिटप के फूलों को फल और फूलों से बीज स्वरूप गर्भ, गर्भ स्वरूप गर्भज इस माननीय संसार की परिणिति करता है। वक्षों में पय और हृदय में ममत्व लिए स्थित प्रज्ञ सी शक्ति स्वरूपा नारी स्थायी तौर पर अपने स्वभाव स्वरूप मनुष्य के हर रूप को सहेजने और संवारने के कृत्य में समर्पित रहती है।

 

कालान्तर में वैदिक पद्धति से शक्ति की पूजा को विधानवत वर्णित किया गया है। यद्यपि वर्ष व ऋतु पर्यन्त माह शक्ति की आराधना का विधान है किन्तु नवरात्र के नौ दिनों जिनमें विशेषकर चैत्र व शारदीय नवरात्र पर मातृशक्ति की आराधना यज्ञ, व्रत व ध्यान और विशेषकर दुर्गासप्त सती के 11, 101, 108, अथवा 1001 या 1108 बार जाप आदि को सिद्धांततः शुद्ध अंत करण के साथ करने के उपरान्त भगवती का इतने ही कुण्डीय यज्ञ अथवा हवन का विशेष महत्व है। यद्यपि मातृ शक्ति केवल भावना प्रधान है किन्तु स्नेह मयी माता को परिस्थिति स्वरूप उग्रतम रूप धारण कर स्वयं में व्यग्रता, उद्विग्नताग्रता और क्रोध को समायोजि करना पडा ताकि ममत्व के स्वरूप को त्यागकर धरा पर दानवीय शक्तियों का दमन का मातृशक्ति पृथ्वी पर संतुलन स्थापित कर धर्म की ओर ज्योतिर्मयीप्रकाश स्वरूप जीवन की रक्षा करती होगी। जहां तक जीवन में शक्ति की प्रासंगिकता है वह वैसे ही है जैसे प्रकृति और पुरूप स्थायीभाव व्यंजना द्वारा मातृ शक्ति को पूरक या कि पूर्णा का स्थान देकर इसके बिना सृष्टि की शून्यता के पराभव को वर्णित किया गया है; मातृशक्ति की आराधना द्वारा जीवन में धन-धान्य , संतति सौभाग्य एवम सहयोग की असीम प्राप्ति नितांत सुनिश्चित की जा सकती है। यह जीवन के आरंभ से अंत बल्कि आदि मध्य अंत (और) तक हमेशा प्रासंगिक रहा है।

पाषाण युग हो या पुरायाषाण या कि मध्ययुगीन इतिहास या वर्तमान आधारित आधुनिक भारतीय समय हमेशा ईश्वरीय परिपाटी की शक्ति आधारित आराधना प्रासंगिक थी, है और रहेगी सच ही कहा गया है कि-

 

या देवी सर्व भूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता।

नमस्तस्ये-नमस्तस्ये नमस्तस्यै नमो नमः।।

 

 

 

संपूर्ण मातृ शक्ति को नमन

एवं समर्पित आलेख

द्वारा

अमित तिवारी, सहायक प्राध्यापक

भारतीय पर्यटन एवं यात्रा प्रबंध संस्थान, ग्वालियर म.प्र.

    

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