‘दानव’
एक अतुकांत कविता द्वारा अमित तिवारी “शून्य”
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हे मानव
तुम बनकर दानव
क्यों करते तांडव
पावन धरती को क्यों डसते
निज शील की धूर्त पिपासा में
क्यों निज हठ औरों का जीवन कुंठित करते
भय न तुम्हे न लाज रही
पर डरो जरा खुद के विनाश से तो सही
धरती पर पातक पहले बढ़ता है
विधाता पाप के घड़ों पर चोट गहरी सी करता है
निज दोषों की बलि कईयों को देते
क्या हाल हो यदि खुद उस पाप को सेते
दखल बड़ा या दंभ बड़ा
जीवन में केवल कर्म बड़ा
औरों के जीवन में मत दखल बढाओ
हे दानव तुम थोडा होश में आयो
संकल्पों की धरती पर जब वासना पग धरती है
कई अबलाओं की नियति पर विडम्बना बनती है
राम न सही, रावन भी बनने से पाप लगेगा
दानव आखिर तेरे सौभाग्य का अंत सृजेगा
अबला की हाय तो ईश्वर को भी लगती है
तेरे अस्तित्व अहम् को भी यह डसने लगते है
भाल पर तेरे कर्म का चन्दन लगा रहेगा
या की कुत्सित कर्मों की कालिख तू मलेगा
तय कर ले
हे मानव
क्या तू बनकर रावन
यूँ ही तांडव नित्य करेगा
द्वारा “अमित तिवारी” शून्य
ग्वालियर , म प्र.
23.10.2020
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