‘‘परिवर्तनम् नामम् जीवनस्य खलु/ध्रुव सत्यम्’’-
(बदलते मौसम और रिश्तों का जीवन पर प्रभाव) जीवन का एक
सापेक्ष आकलन
आलेख द्वारा- अमित तिवारी
सहायक आचार्य
भारतीय यात्रा एवं पर्यटन प्रबंध संस्थान
ग्वालियर म.प्र.
(पर्यटन मंत्रालय भारत सरकार का एक स्वायत्त निकाय)
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जीवन संकल्प का नाम है और इसकी इतिश्री विभिन्न
अवस्थाओं में होती हुई निरन्तर चलायमान रहती है; शायद यह चलायमान प्रक्रम ही प्रकृति के यथेष्ट का परिचायक
है जो जीवन में परिवर्तन के नाम से जाना जाता है। अणुवाद का अनुसरण करें तो यह
ज्ञात होगा कि यह क्षण भंगुर, चलायमान और
पुर्नचक्रण के घटनाक्रम में घटता-बढ़ता रहता है। जीवन और पृथ्वी के अनुशीलन करें तो
ज्ञात होता है कि यह निन्तर परिवर्तनशील क्रमिक और सतत होते हुए एक नैर्सगिक
प्रक्रिया में बनते विगडतें शाश्वत नश्वरता को ही प्राप्त होता है। जीवन में हमें
जन्म और मृत्यू की यात्रा यानि शरीर की प्राप्ति किसी कायिक विधान के आधार पर होने
के साथ-साथ विश्लेषण और विपणन आधारित कर्मों के विधान से ईश्वरीय घटनाक्रम के
स्वरूप होती है। मानव जीवन में विभिन्न अवस्थाओं में शरीर परिवर्तनशीन है और
उत्तरोत्तर मूल चार अवस्थाओं से होते हुए परिवर्तन के अ कार के तौर पर विभिन्न
स्तरों को प्राप्त करता है जिनमें शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक और
मानसिक स्तर मुख्य है जीवन में मनुष्य का स्वभाव और व्यवहार परिवर्तन की महानता से
परे ज्ञापित होता है और यह स्वभाववश भी है तनिक का अभाव और तनिक की प्राप्ति
व्यक्ति को क्रमशः दमित और धनिक बना देती है। लेकिन इसकी अनुशंसा उसके व्यवहार
आचरण और कर्मों से होती हुई स्पष्टतः ज्ञापित होती है जिसका प्रभाव व्यक्ति विशेष
के मानवीय और सामाजिक स्वरूप पर अवश्य पडती है। अरस्तु ने कहा था कि ‘जो व्यक्ति सामाजिक नही है वो या तो पशु या
देवत्व की प्राप्ति कर चुका है‘ ; यहाँ मनुष्य के सामाजिक होने का तात्पर्य उसके जीवन
के लिए नितान्त आवश्यक परिवार और परिवार आधारित परिस्थितियों से है जिनके अभाव में
मनुष्य का जीवन अधूरा और गौण है। लेकिन ऋतुओं का बदलना मौसम और परिस्थितियों का
बदलना एक बदलाव है जिसके सापेक्ष (के मुताबिक) परिवर्तन और स्वयं को ढालना एक
अपरिहार्य और नैसर्गिक प्रक्रिया है लेकिन इससे उलट मानवीय स्वभाव और सामाजिक ताने
बाने के भीतर के परिवर्तन तय गति से और शनै-शनै होना स्वभाविक तो है और होता भी है
जो कि स्वीकार्य है किन्तु वर्तमान वैश्विक भौगोलिक परिस्थितियों में उत्पाद और
उत्पाद आधारित बाजारवाद ने व्यक्ति के सामाजिक ढांचे और बुनियादी सोच में एक
आमूलचल परिवर्तन ला खडा किया है । जिससे परिवर्तन की एक तीव्र आँधी दृष्टिगत होती
है जो बदलते मौसम और बदलते रिश्तों की तर्ज पर आधारित होती है। हमारे प्राचीन
सामाजिक ढाचें में परिवर्तन की एक महती अंगीकार्यता ‘‘परिवर्तनम् नामम् जीवनस्य खलु/ध्रुव सत्यम्’’ पर आधारित है जो स्वभाविक मानवीय परिवर्तन
शीलता के समायोजन को समेटे हुए है। लेकिन बदले हुए समय और मानवीय सोच में रिश्तों
को केवल स्वार्थ सिद्धि का मूल बना दिया है और इसके परे सामाजिक और भावनात्मक
रिश्तों को तिलांजली दे दी गई । एक माँ सभी बच्चों के बचपन के कपडें उनके युवा
अवस्था तक संभालकर रखती है ताकि उनके बचपन से उन्हें परिचित करा सके लेकिन बच्चे
अपने स्वयं की कारक अपनी मां को बोझ और अनावश्यक तत्व समझकर घर परिवार और महत्वपूर्ण
निर्णयों में उसकी कोई आवश्यकता नही समझते । ये भी कटु लेकिन सामाजिक बदलाव का एक
दुर्दान्त सत्य है। एक पिता पांच बच्चों
की परिवरिश के लिए खुदको सहर्ष होम (त्याग) करता है कदापि उसके सापेक्ष बच्चे
बदलाव का अनुसरण कर एक पिता को हर्ष के साथ अपने कहे जाने वाले (सो काल्ड- होम)
में पिता को शामिल (अकोमोडेट) नही कर पाते। बदले हुए मौसम का प्रतिकार तो
व्यवस्थावादी सामाजिक ढांचे में हो जाता है लेकिन बदले हुए रिश्तों के मिजाज
सामाजिक कुंठा को जन्म देता है और जिसकी परिणिति पारिवारिक कलेश ,विखराव, अलगाव, अवसाद , पहली और तीसरी पीढी के महत्वपूर्ण मेलजोल के
खात्मे (दादा और पौता पीढी के मिलन के अंत) , पीढियों के उत्तरोत्तर, मूल्यों के स्थानांतरण में व्यवधान आदि के तौर पर देखने को
मिलता है।
बदले हुए मौसम
में धूप नही खिलती
और बदले रिश्तों में आजकल गांव के अनुभव की धूल
नही मिलती।
मिलने को मिलते
है मौसमी लालची रिश्ते पर उनमें भावनाओं के फूल नही खिलते।
द्वारा- अमित तिवारी
सहायक आचार्य
भारतीय यात्रा एवं पर्यटन प्रबंध संस्थान
ग्वालियर म.प्र.
(पर्यटन मंत्रालय भारत सरकार का एक स्वायत्त
निकाय)
दिनांक 08.10.2020
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