‘तर्क का दबाब’
एक स्वरचित लघु
कथा
द्वारा अमित
तिवारी ‘शून्य’
ग्वालियर म.प्र.
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सुरभि घडी की तरफ देख रही
थी; बीते रोज की तरह ही विवेक का आज भी कोई फेान नही आया और न तो वो स्वयं अभी तक
आए। इस कशमकश में कि वे शायद व्यस्त होगे सुरभि ने इंतजार करना मुनासिक समझा टेबल
पर घडी की ओर निगाह करके इंतजार में बैठी तो पता चला कब आंख लग गई और सुरभि चुपचाप
इंतजार करते करते अल्पनिद्रा में मग्न हो गई। जब आंख खुली तो देखा रात के 9.30 बज चुके हैं। मारे क्रोध और चिंता के उसका सिर घूमने लगा
और यकायक जैसे ब्लड प्रेशर तेजी से बढ गया हो जैसे , सोचने समझने की प्रवृति जैसे
शून्य हो गई हो अब सुरभि से रहा न गया तुरन्त फोन उठाकर उसने विवेक को लगाया पूरी
घण्टी जाने पर भी विवेक ने फोन नही उठाया I गुस्से से लाल पत्नी ने फिर से फोन लगा
दिया अबकी बार भी विवेक की ओर से फोन नही उठा चिन्ता और तनाव से ग्रस्त सुरभि के
क्रोध का कोई पारावार नही था I मन में विवेक प्रति अविश्वास रूपी हीन भावना घर कर
रही थी अंतर्मन में मानो विवेक की नकात्मक छवि बन चुकी हो जैसे। और मन बेहद अशांत
भाव में पडकर अपने आप से विवेक की नकारात्मक छवि गढ रहा था और आंसुओं का आवेग बंध
मुठ्ठियों के क्रोध के साथ धैर्य की सारी सीमाएं तोडने को आतुर था ऐसे में अचानक
विवेक का फोन बज उठा बिना किसी भावनात्मक प्रतिरोध के स्वयं को फोन रिसीव करने से
न रोक सकी। रिसीवर से विवेक की चिरपरिचत आवाज की जगह किसी महिला का स्वर आया जिसे
सुनकर क्रोध की पराकाष्ठा को पहुची सुरभि को मानो भावनात्मक धक्का सा लगा हो सामने
के स्त्री स्वर ने विवेक के वाहन चलाते समय बार बार सुरभि को पिछले कॉल को अटैंड
करने के लिए मोबाइल को पाकेट से निकालने की प्रक्रिया में दुर्घटना में उसका वाहन
एक आटो रिक्शा से टकराकर गिर गया विवेक वेहोश हो वही पडा रहा लेकिन हाथ के नजदीक
मोबाइल वही बजता रहा I जब एस पी महोदया रजनी ने इस एक्सीडेंट की भनक पायी तो अपनी
टीम के साथ घटनास्थल पर पहुच ;विवेक के फोन पर आए पिछले काल का संज्ञान लेते हुए सुरभि
को इस भीषण दुर्घटना की जानकारी देते हुए यह तर्क दिया कि प्रत्यक्ष दर्शियों ने
विवेक के फोन काल उठाने की प्रक्रिया में वाहन के संतुलन खोने और दुर्घटना होने की
बात कही इस तर्क से सुरभि के मस्तिष्क की सारी जटिल नाडिया मानों निष्क्रिय होकर;
विवेक की सलामती की दुआ करते हुए विवेक तक पहुचने की जल्दी में बेतरतीव भागी जा
रही थी , ‘काश कि मै यू अधीर न होती तो विवेक सही सलामत घर आ पाते’ पर ये
तर्क उसे रास्ते भर परेशान करता रहा और इस
तर्क ने शायद विवेक की जिन्दगी न बदल दी हो I
द्वारा अमित तिवारी ‘शून्य’
ग्वालियर म.प्र.
दिनांक 27.10.2020
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