दायरे
जिंदगी के - कभी शिकायत कभी ख्वाहिश
एक
अतुकान्त कविता
द्वारा अमित तिवारी ‘शून्य'
ग्वालियर म.प्र.
शिकायत
करें या हिफाजत करें,
जिंदगी
से कैसे हम बगावत करें,
नही
ढाल कोई ना कोई है रक्षक,
यहाँ तो मसीहा स्वयं का है निंदक,
सज़ा
काटता है जो जिंदगी काट लेता,
नहीं
ज्ञान हमको ना ही ज्ञान होता,
अगर
जिंदगी से वो ना दो चार होता,
खुदी
से शिकायत खुदी से लडाई,
कहानी
अजब है जिंदगी की मेरे भाई,
अचानक
जो होता है वो भी है निश्चित,
फिर
निचिश्त को क्यों माने हम अनिश्चित,
ज़रा
जन्म मृत्यु तो तय फ़लसफ़ा है,
हमें
जो मिला है वो हमने ही गढा है,
बडे
राज गहरे समेटे है जीवन,
बिना
चेतना के ‘शव‘ बनता
ये तन,
दुःख-सुख
के बेडे, बडे हैं घनेरे,
वही
बच सका है जो हैं राम के चितेरे,
दवा
भी नही है दुआ भी नही है,
जीवन
की डोर पर ‘काल‘ तो रूका भी नही है,
प्रणय
हो की द्वेष हो सब देह से हो,
मृत्यु
के परे तो कल्पना भी हेय हो,
कैसी
भी हो कंचन काया जीवन के दर्पण की,
होती
है बस नींद टूटे सपने टूटे की सी उम्र की
बडा
फलसफा है जिंदगी का खुद से लडकर,
ये
आबाद होती है नित बनकर बिगडकर,
कहाँ
छिप सका है स्वयं से कोई राही,
जिंदगी
के उपवन में मिले सब हैं राही
दायरे जिंदगी के सच ही है
कभी तो शिकायत हैं
और कभी ख्वाहिश हैं
द्वारा
अमित तिवारी ‘शून्य‘
ग्वालियर
म.प्र.
दिनांक
- 03.10.2020
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