“धर्म और अध्यात्म में अंतर”
स्वतंत्र आलेख द्वारा अमित तिवारी , सहायक प्राध्यापक
भारतीय पर्यटन एवं यात्रा प्रबन्धन संस्थान, ग्वालियर म.प्र.
(केंद्रीय पर्यटन मंत्रालय का एक संगठन )
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यूँ तो सामान्यता धर्म को संस्कृत शब्द ‘ धारयति’ इति धर्म अर्थात, मानवीय संसर्गों में धारण करने हेतु जो
उसका उद्दात्त कर्म क्षेपण है ; जिसे उसके द्वारा बिभिन्न परिस्तिथियों , बिभिन्न
प्रक्रियाओं और भावनात्मक आवेग से गुजरते हुए भी धारण करना होता है ;और यथार्थ में
यही धारेय ‘धर्म’; व्यक्ति की रक्षा विभिन्न पारिस्थितिक संसर्गों में करता ही है |
इसे धर्मो रक्षति रक्षित के सन्दर्भों का सूत्र ही समझा जाना चाहिए | यथा उदहारण स्वरुप एक ही कुल की दो पुत्र वधुएँ
-सीता व उर्मिला का एक ही परिस्थिति में धर्म परस्पर अलग और विरोधी था ; किन्तु
अपनी जगह स्थिर और स्पष्ट ही | वही धर्म
को कदाचित पंथ के या इश्वर उपासना के
संसर्ग भर में देखना मात्र एकाकी या उसका संकुचित सन्दर्भ है | यद्यपि इस चेष्टा
से धर्म के वायवीय सिद्धांतों में मानव मात्र ही की बात करके मुझे प्राणी जगत के धर्म
की परिणिति को न गिन पाने का दोष न देवें , वो तो स्वाभाविक संसर्ग होना ही है |
वही मानवीय सन्दर्भों में आध्यात्म का कदाचित व्यापक और अत्यंत
स्वीकार्य स्वरुप आत्म अध्ययन अथवा बोध के प्रक्रम से होता है | विषद विश्व में
जरा, जन्म और जीविका
क्रम के चिंताग्रस्त मकड़ जाल में पड़ा मनुष्य स्वयं की मुक्ति और ईश्वरत्व को निज
में प्राप्त कर पा लेने का धेय्य जिस गहन आतंरिक चेतना जुडाव प्रक्रिया द्वारा
करता है ; उसे गोस्वामी तुलसीदास द्वारा स्पष्ट रूप से अध्यात्म या की राम से
जुडाव संभाव्यता या अपने रचनात्मकता के शब्दों में कहूँ तो संभव है राम मिलें
की आतंरिक यात्रा जैसा है |
यहाँ स्पष्ट करना ही
होगा की धर्म का मूल ही अध्यात्म की प्राप्ति या परिणति को तय करने की प्रक्रिया
है और जिन्हें आध्यात्मिक बल मिला वो धर्म
को निरापद रूप में प्रति स्थापित करके नया बीज दे गए | यद्यपि धर्म का ध्येय और आध्यात्म का प्रतिफल ही व्यक्ति का
सही मायने में कल्याण है |
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