विजय श्री
एक अतुकांत स्वरचित मौलिक कवित्त
द्वारा अमित तिवारी “ शून्य “
ग्वालियर म. प्र.
======================
विजय की पताका
धर्म की बात है
शीर्ष पर जा रही है
ख़ुशी तो उसकी शुरुआत है
सिहावलोकन करती है
तोडती वेदना का वितान
बन सके जिसके पथिक
साथियों के क़दमों के निशान
सितम उनके झेले जिन्होंने
मगर आर्तनाद करके
पहुँच ही गए शिखर पर
जहाँ कहाँ पहुंचा था
कोई और इंसान
मुलाकात का दौर
वाज़िब सा भी है
मगर उससे पहले प्राणों का उत्सर्ग करलो
तभी तो वरन विजय श्री का होगा
यूँ जीते जी कहाँ जीत मिलती है
सबको जगत में
कड़ा होता है विजय श्री का वरण
और इम्तिहान सबका
द्वारा
अमित तिवारी शून्य
ग्वालियर
म.प्र.09.08.2021
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें