पत्रकारिता बनाम विद्वेष की स्तिथियाँ –
पत्रकारिता के लिए संघर्ष की समीक्षा- फिर
क्यों बने कोई पत्रकार की भावना की समीक्षा एक आलेख
द्वारा अमित तिवारी
सहायक प्राध्यापक
भारतीय पर्यटन एवं यात्रा प्रबंध संस्थान ग्वालियर
(पर्यटन मंतालय का एक स्वायतत्त साशी संगठन )
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भारतीय परिदृश्य में
पत्रकारिता सामाजिक परिपेक्ष्य में सेवा आधारित विषय रहा है। जो कि लोकतंत्र की- ‘जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा की अवधारणा’ पर आधारित एक
मूलभूत सिद्धान्त- शासन, समाज, हितधारकों, वर्ग, जातिगत मामलों,
एवं समग्र मानवता के हित हेतु समुचित विषयक
उन्नयन हो एक महत्वपूर्ण स्तिथि रही है; सम्प्रेषण शैली द्वारा सुस्पष्ट एवं
सप्रमाण साक्ष्यों को समेटते हुए एक नवीन सामाजिक आवश्यकता जिसे -ख़बर या समाचार
के नाम से जाना जाता है समयोचित विषयों को लिपिबद्ध या वाणीबद्ध करते हुए न्यूनतम
शब्दों में आकर्षक शैली में पाठकों या दर्शकों को प्रस्तुत किया जा सके। यद्यपि इस
विधा की आवश्यकता सामाजिक जगत में बहुत पहले से रही है लेकिन प्रामाणिक तौर पर यह कागज़
के आविष्कार और विशेषकर प्रेस के आने के बाद यानि छापा खाना के उद्भव के बाद देखा
और सुना गया है और ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में 16 वी शताब्दी ई. के उत्तरार्ध में इसके यूरोप में छपने की
प्रथम घटना ऐतिहासिक कालखण्ड में दर्ज है। यह लैटिन शब्द जर्नल से ओतप्रोत होते
हुए अपभ्रंश में फ्रेंच के जुगनाल के समीप का है। जिसे अंग्रेजी में प्रत्यय (+ism)
के साथ समायोजित करने पर जर्नलिस्जम शब्द का उद्भव हुआ है, जिसका शाब्दिक अर्थ
विषयवस्तु की खोज कर उन समस्याओं पर शोध कर निष्कर्ष स्वरूप संपूर्ण विषय की
समीक्षा कर एक नई जानकारी स्वरूप में प्रस्तुत करने की होती है। कालान्तर में ख़बरों
को गढने या जानकारियों को ज्ञापित करने के पूर्व उनके विषय में शोध परक प्रयास
द्वारा उनके विषय में सूचनाए जुटाकर विधिवत प्रमाणिकता की परख के बाद लिपिबद्ध
किया जाता है जिसे संपादन कला के उपरांत प्रकाशित व संदर्भित किया जाता है।
यद्यपि आज के परिदृश्य
में पत्रकारिता इलेक्ट्रोनिक माध्यमों के प्रश्रय में रहकर सूचना के विस्फोटक आदान
प्रदान पर आकर आज एक नई पत्रकारिता जिसे इलेक्ट्रोनिक मीडिया कहते है का स्वरूप ले
चुकी है। जर्नल्ज़िम के स्वर्णिम इतिहास से होते हुए युगान्तर की सचेत कल्पनाओं और
कल्पनाशीलता के प्रश्रय पर आज खोजी पत्रकारिता से पत्रकारिता और पत्रकारिता से पीत
पत्रकारिता होकर भी रह गई है हालाकि पत्रकारिता या मीडिया को संविधान में
विधायका, न्यायपालिका व
कार्यपालिका के बाद चैथे स्तंभ के तौर पर देखा जाता है।
भारतीय स्वतंत्रता
आन्दोलन और उसकी आगे की खेप की पत्रकारिता या कि मीडिया निरंकुश शासन को नियोजित करने एवं स्वराज्य और संविधान
की रक्षा करने की एक महत्वपूर्ण कड़ी रही है। यद्यपि 70 के दशक में सरकारों के निरंकुश होने और एक अनचाहे आपातकाल
के देश में निवेश के द्वारा पत्रकारिता या उस संघर्ष को जिसमें शासन के खिलाफ आँखों
में आखें डालकर लोकतंत्र और लोक-हित की रक्षा का एक महत्वपूर्ण प्रश्रय छिपा रहा
हो। ऐसे सर्वकालिक पत्रकार समाज व राष्ट्रहित के मुख्यवाहक माने जाते रहे हैं।
बदलते परिदृश्य में भारत
में स्वतंत्रता के बावजूद व्यक्ति के मौलिक हितों जिसमें बोलने और लिखने का अधिकार
होता है को दरकिनार कर जब शासन द्वारा दमन की नीति के तहत पत्रकारिता को दबाया
जाता है तो फिर वर्ग संघर्ष या निम्नतम परिपाटी पर जी रही गरीब श्रेणी के लोगों के
हित को साधना असंभव हो जाएगा; साथ इस आदर्श कार्य को जिस संघर्ष से वेतनिक अथवा
अवेतनिक होकर समाज हित में लेखनी के पुजारी करते आए है उसे कर पाना मुश्किल होगा। बीते
दिन की घटना निहायत ही आपत्ति जनक एवं अमानवीय है यद्यपि व्यापारिक परिपेक्ष्य अलग
हो सकते हैं किन्तु दमन तो केवल दमन है और गलत केवल गलत है; के परिपेक्ष्य में राष्ट्र के मीडिया बन्धुओं
को जो हालाकि इस घटना के विरोधी या कि समर्थक हो सकते हैं; को भी इस वीभत्स घटना की निंदा और पुलिसिया
क्रूरता और शासन की खुद पर उंगली उठाने वाले पत्रकार के खिलाफ तंत्र को इस्तेमाल
करने की नीति है, निहायत शर्मनाक
और अमानवीय है। इतिहास में इस तरह के वाकिए अगर फिर से दोहराए जाएगें तो इतिहास उन
मीडिया मित्रों को मिटते देखेगा जो आज इस घटना का समर्थन कर रहे है। सच ही है गलत तो केवल गलत ही होता है और अगर यह
सही है तो फिर पत्रकारिता के लिए संघर्ष झूठ है और फिर क्यों कोई सच्चा पत्रकार
बनेगा।शर्मनाक, सोचनीय व
निंदनीय।
द्वारा अमित तिवारी
सहायक प्राध्यापक
भारतीय पर्यटन एवं यात्रा प्रबंध संस्थान ग्वालियर
(पर्यटन मंतालय का एक
स्वायतत्त साशी संगठन)
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