‘‘बडों
की सीख"
संस्मरण
स्वरचित
द्वारा
अमित तिवारी ‘शून्य‘
उम्र
के छोटे से दौर में आफिस और घर गृहस्थी के दायरे से निकल कर, रविवारीय
फुर्सत के क्षणों में चाय के प्याले के साथ एकांत में बैठा। तो, याद
आया कि जीवन का एक छोटा सा कोना, उम्र का बचपन का पडाव, गर्मियों
की छुट्टियों में ननिहाल का प्यारा सा गांव था और बेहद गर्म मौसम में भी छुट्टियों
का सौभाग्य और नाना का घर। अगर मन में आज और उस पल की तुलना करूं तो ज्ञात होता है
कि जीवन में आज सफलता और व्यस्तता तो है; लेकिन खुद से खुद की भेंट का गुणवत्ता
समय नही है। वो मस्ती नही है, वो अल्लहडपन नही है, दिमागी
फितूर तो है लेकिन सुकून नही हैं ; जो बचपन में था। खैर मैं जिस परिद्रश्य की बात कर रहा हूँ, उसका संस्मरण
ननिहाल की बचपन की वो सुकून भरी यात्रा थी। जो शायद आदरणीय नानाजी (अब स्वर्गीय)
की मुझे दी गई एक बेहद खास सीख थी । जिसे मैने उनके सानिध्य में पाया; यद्यपि
वो कोई प्रवचन नही था न कोई दृष्टान्त न ही कोई शपथ थी जब ननिहाल में कुछ दिन
बिताये तो एक बच्चे के तौर पर उनकी दिनचर्या का साथी बना और यकीनन उन दिनों गांव
में (नाना के गांव में) सभी बच्चों में, मैं अकेला उनकी दिनचर्या में सुबह और
शाम उनके साथ रहा करता था मुझे याद है स्नान के बाद, वे मेरी माता जी को मुझे सुबह
शीघ्र नहलाने की बात कहते और बाद में तो पूरे ननिहाल प्रवास के दौरान नहा धोकर
उनके साथ गांव के छोटे मन्दिर (हुनमान व शिव); जो उनके घर से
शायद 500 मीटर की परिधि में रहा होगा। मुझे नही मालूम कि क्यों वो, नित्य
सुबह-शाम, सभी बच्चों में से केवल मुझे ही अपनी दिनचर्या का हिस्सा बनाए हुए
थे। यकीनन मुझे भी याद है केवल प्रसाद का लालच मुझे उस दिनचर्या में लगभग दो किमी.
(का आना जाना) के लिए बाध्य नही कर सकता था। शायद उनका व्यक्तित्व का मेरे
व्यक्तित्व से कोई तार जुडा था। उस उम्र में भी यकीनन उनसे पूजा पद्धति सीखना,
आचमन
करना, ध्यान लगाना, पाठ करना सीखना आदि मुझे बहुत रूचिकर
लगता था और मुझे इस बात का शत-प्रतिशत स्मरण है कि वे मुझे बताते (सिखाते) थे कि
उपासना में निरंतरता बहुत जरूरी है उसमें स्वयं को समर्पण करना भी बहुत जरूरी
है...मुझे याद है गांव के उनके घर से पगडंडीनुमा, धूल भरे रास्तों पर होते हुए
मंदिर तक जाना जिसमें उनका नंगे पैर होना लेकिन मुझे उनके द्वारा चप्पल (पादुका)
पहनने का कठोर आदेश रहता था। सबसे अच्छा लम्हा घर से ले जाइ गई पीतल की बाल्टी और ताम्बे
के लोटे को मंदिर की कुइया से लेज (रस्सी) के द्वारा पानी भरने के लिए उनके द्वारा
कुइया में डालना, धडाम की आवाज से बाल्टी का पानी में गिरना और
फिर भारी होकर बाल्टी का धीरे-धीरे उनके द्वारा ऊपर खीचा जाना, लेकिन
मुझे कुइया की सीढी पर न चढने देने का सख्त आदेश आज भी याद है। पानी की ठण्डी धारा से उनका मेरे
हाथों और मुंह को धो लेने का आग्रह, पानी की ठण्डक के जैसा ही ठण्डा लगता
था। और सबसे आकर्षक बात मंदिर की सीढियों पर चढकर मंदिर में प्रवेश करना। वो
सीख, वो एकान्त, वो दिव्य शान्ति
और वो परिद्रश्य मानो आज भी मुझे एक आध्यात्मिक सीख देता हो। यही नहीं मंदिर और घर
के बीच आने जाने वाले यात्रा पथ की वो मोहक चर्चा आज भी स्मृति पटल पर उनकी सीख के
तौर पर उजागर है। वैसे आज मैं, पर्यटन व यात्रा विषय का विषेषज्ञ हो;
देश के प्रतिष्ठित पर्यटन एवं यात्रा प्रबंध संस्थान, भारतीय
पर्यटन एवं यात्रा प्रबंध संस्थान ग्वालियर में सहायक आचार्य के पद पर हूँ । जैसे
हम (मैं) एक पर्यटन विद होने के नाते; यात्रा और
पर्यटन का अकादमिक विष्लेषण व परिभाषण विभिन्न उद्देश्यों के माध्यम से करते हैं
और यात्रा व पर्यटन की विभिन्न (अकादमिक) अवधारणाएं बनाते हैं, वैसे
ही संयोग से बचपन में नाना जी के साथ
मंदिर और घर के बीच की सुबह-शाम की आने जाने का यात्रा पथ और वो चर्चा पर्यटन और यात्रा
को समझने के प्रति भगवान् की एक उनके द्वारा पूर्व निर्धारित सीख ही थी कि आज मैं देश
में पर्यटन प्रबंधन शिक्षा के अनेकानेक मानदंड गढ रहा हॅू।
प्रभु की
बडों के माध्यम से अगली पीढी को गुणवत्ता परक सीख बहुत गहरी होती है। वे
(नानाश्री) मेरी स्मृतियों में शेष हैं और मुझे नितान्त संयोग-वश सीख देते रहते
हैं।
द्वारा
अमित तिवारी ‘शून्य‘
दिनांक
27.08.2020
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