रोना-धोना
अतुकांत स्वरचित कविता
द्वारा अमित तिवारी शून्य
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यह जीवन का रोना धोना
तो बस यूहीं चलता जाएगा
क्या तेरे हाथ में था
और क्या लेकर इस धरा से जाएगा
भाग रहा जीवन से जो तू
निज कर्मफल से भी क्या बच पाएगा
खेल लेखनी का भी है खूब पर क्या
छोड़ लेखनी भी क्या तू इन सब से बच पाएगा
रोटी रोजी कि ये दौड़ करती तुझको यू मजबूर
खेल देखने वालों को आखिर यह क्यों समझ आएगा
ना याचना ना कि पलायन ही
कर्मो की कारा से मुक्त तुझे कर पायेगा
प्यारे ,ये रोना –धोना तो मरते दम तक ही
साथ निभाएगा, तो उठ छोड़ अब रोना धोना
बना कर्म को नियति और खुद का नया बिछोना
छोड़ राग रुदन का बस होने दे जो है होना
कर्म ही निज हाथ में तेरे
और इस मनुज तन से बस इसका तय है होना
बस विवेक रख ,ध्यान दे
बस सत्कर्मो को ही बना प्रयोजन निज हाथों से
होना
द्वारा अमित तिवारी “शून्य“
13.09.2020
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