विसर्जन
स्वरचित लघुकथा द्वारा अमित तिवारी ‘शून्य’
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राकेश आज आत्मदीपो भव की भावना के बारे में सोचते हुए कार की स्टयरिंग ,क्लच, ब्रेक और रेस पर लक्षित करके सड़क पर गाडी दौडाए जा रहा था, यद्यपि गाड़ी के साथ बढते हुए पहिए उसकी स्वयं के तमस के विसर्जन की भावना को बढ़ाती जा रही थी। उसके मस्तिष्क में कुछ विचार कौंध रहे थे पीछे बेटी स्नेहा गणेश मूर्ति को संभाले हुए उसे देखती जा रही थी। अचानक कुण्ड के नजदीक आने पर राकेश ने गाडी रोकी और स्नेहा को उतरने का इशारा करते हुए , गाडी किनारे से लगा गणेशमूर्ति को हाथों में लिया और स्नेहा के उतरने पर उसे पुनः थमा दिया। दोनों के कदम मिले -जुले भाव से धार की ओर उतरते जा रहे थे। राकेश ने अश्रुपूर्ण स्वर में स्नेहा से कहा मैने आज गुलामी से भरी नौकरी की गणेशमूर्ति की प्रार्थना से विसर्जित करने का मन बना लिया है और अब केवल खुद का कारोबार ही करूंगा। क्या तुम मेरा साथ दोगी? प्रफुल्लित हृदय लेकिन नम आंखों से स्नेहा ने हामी भर दी और कहा कर दीजिए श्री गणेश इस विसर्जन का, जो आपको गुलामी से मुक्त करती हो । आगे आपके हर निर्णय में आपका साथ अवश्य दूंगी, विश्वास रखना। आज ये विसर्जन नही बल्कि श्री गणेश है आपके के सृजन का। दोनों ने आंसू पोछें और गणेश प्रतिमा को नमन कर उनके साथ विसर्जित कर दिया उस विचार को और नव सृजन की शुरूआत की , जिसकी आज्ञा उन्हें मानो श्री गणेश जी ने ही स्वयं दी हो जैसे।
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