शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

ओसमयी ‘प्रकृति’ स्वरचित कविता द्वारा अमित तिवारी ‘शून्य‘

 

                          ओसमयी ‘प्रकृति’

स्वरचित कविता

द्वारा अमित तिवारी शून्य

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ओस है कि सोच है,

मन तो कुछ खामोश है

प्रकृति की निरीह कल्पना है ,

पंकज की पंखुडियों पर,

नेह का लेप है,

सृजन के शाश्वत् विधान सा,

अग्नि सा पवित्र और ज्योतिर्मय है ,

किन्तु तपन नहीं वरन है,

शीतलता का शौणित प्रवाह,

माधुरीतम- उज्जवलासम है,

इसका वितान-नयना भिराम ,

सम्यक सा और है,

समान जैसे किसी प्रेयसी,

के हों अधरों का पान,

चूमती धरा को अम्बर का मान,

सहज सरल सरितामयी है,

क्षुधा करा रही है स्तनपान,

जीव को मां का है,

एक ओस-कोस का निधान ,

छोटे से तरू-तृण ,

और मां के लालित्य का है ,

ममत्व भरे पय का आदान,

देख प्रकृति की उदात्त ओस‘ ,

नेह से कोख भरी है,

प्रणय का ही है ये अवदान,

प्रकृति में बस ओस-ओस-ओस,

बस ओस ही भरी है,

हरिता सी और ब्रहम के समान

 

द्वारा अमित तिवारी शून्य

ग्वालियर म.प्र.

दिनांक 25.09.2020

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