बुधवार, 2 सितंबर 2020

झिझक - संकोच - हिचक एक स्वरचित अतुकांत कविता द्वारा अमित तिवारी 'शून्य'

 

झिझक – संकोच –हिचक

अतुकांत स्वरचित कविता द्वारा अमित तिवारी ‘शून्य’

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हिचक कैसी,

झिझक  कैसी,

और कैसा संकोच,

हो आया

स्वयं की काबिलियत

पर क्यों तुम्हें

अफ़सोस हो आया

निमिष में नहीं था

जो तुम्हे मिल नहीं पाया

मिला जो है उसी को

क्या पाल पाए हो

अंगड़ाई में तुम्हारी जीत छुपती है

दर्पण से दंभ और डर कैसा

हेय नहीं हो तुम

फिर भी

हिचक

झिझक

और

संकोच

ने तुमको अधुरा सा बना डाला

हिचक छोड़ो

झिझक छोड़ो

और संकोच को छोड़ो

उठो जीवन के ऊत्कर्ष पर

कर्म पर

कर्त्तव्य पर

दृढ़ता पर

जागो  सोचो  की क्या कुछ

नवीन करना है

नेह में स्वयं को

और स्वयं का ध्येय बनना है

 

हिचक की हीनता छोड़ो

संकोच का दर्पण तोड़ो

झिझक की बेड़ियाँ काटो

 

स्वरचित अतुकांत कविता

द्वारा अमित तिवारी ‘शून्य’

०२.०९.२०२०   

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